Friday, February 14, 2025

मानव रोग एवं उपचार (Human diseases and treatment)

मानव रोग एवं उपचार (Human diseases and treatment)


मानव रोग एवं उपचार

        (human diseases and treatment)

यह चिकित्सा विज्ञान का मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में में किसी प्रकार का अभाव होना ‘रोग‘ कहलाता है। जिस व्यक्ति को रोग होता है उसे ‘रोगी‘ कहते हैं। हिन्दी में ‘रोग‘ को ‘बीमारी‘ , ‘रुग्णता‘, ‘व्याधि‘ भी कहते हैं।

अनुवांशिक विकार, हार्मोन का असंतुलन, शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली का सही तरीके से काम नहीं करना, कुछ ऐसे कारक हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। आंतरिक स्रोतों द्वारा होने वाले रोग को जैविक या उपापचयी रोग कहा जाता हैं, जैसे– हृदयाघात, गुर्दे का खराब होना, मधुमेह, एलर्जी, कैंसर आदि और बाहरी कारकों द्वारा होने वाले रोगों में क्वाशियोरकोर, मोटापा, रतौंधी, सकर्वी आदि प्रमुख हैं। कुछ रोग असंतुलित आहार के कारण से सूक्ष्म–जीवों जैसे – विषाणु, जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ, कृमि, कीड़ों आदि द्वारा होते हैं। पर्यावरण प्रदूषक, तंबाकू, शराब और नशीली दवाएं कुछ ऐसे अन्य महत्वपूर्ण बाहरी कारक हैं जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

प्रमुख मानव रोग निम्नलिखित है –

  • आनुवंशिक रोग
  • जीवाणु जनित रोग
  • विषाणु जनित रोग

आनुवंशिक रोग

आनुवंशिकी और रोग में कोई न कोई संबंध रहता है। अनेक रोग दूषित वातावरण तथा परिस्थतियों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अनेक रोग ऐसे भी होते हैं जिनका कारण माता-पिता से जन्मना प्राप्त कोई दोष होता है। ये रोग आनुवंशिक रोग (जेनेटिक डिसऑर्डर) कहलाते हैं। कुछ ऐसे रोग भी हैं जो आनुवंशिकी तथा वातावरण दोनों के प्रभावों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

जीवों में नर के शुक्राणु तथा स्त्री की अंडकोशिका के संयोग से संतान की उत्पत्ति होती है। शुक्राणु तथा अंडकोशिका दोनों में केंद्रकसूत्र रहते हैं। इन केंद्रकसूत्रों में स्थित जीन के स्वभावानुसार संतान के मानसिक तथा शारीरिक गुण और दोष निश्चित होते हैं। जीन में से एक या कुछ के दोषोत्पादक होने के कारण संतान में वे ही दोष उत्पन्न हो जाते हैं। कुछ दोषों में से कोई रोग उत्पन्न नहीं होता, केवल संतान का शारीरिक संगठन ऐसा होता है कि उसमें विशेष प्रकार के रोग जल्दी उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह निश्चित जानना कि रोग का कारण आनुवंशिकता है या प्रतिकूल वातावरण, सर्वदा साध्य नहीं है। आनुवंशिक रोगों की सही गणना में अन्य कठिनाइयाँ भी हैं। उदाहरण के लिए बहुत से जन्मजात रोग अधिक आयु हो जाने पर ही प्रकट होते हैं। दूसरी तरफ, कुछ आनुवंशिक दोषयुक्त बच्चे जन्म के समय ही मर जाते हैं।

तिरोधायक रोगकारक जीन के मौजूद रहने पर इनके असर से रोग प्रत्येक पीढ़ी में प्रकट होता है, लेकिन तिरोहित जीन के कारण होने वाले रोग वंश की किसी संतान में अनायास पैदा हो जाते हैं, जैसा मेंडेल के आनुवंशिकता विषयक नियमों से स्पष्ट है। कुछ रोग लड़कियों से कहीं अधिक संख्या में लड़कों में पाए जाते हैं।

आनुवंशिक रोगो के प्रकार

1. चक्षुरोग

तिरोधायक जीन के दोष से मोतियाबिंद (आँख के ताल का अपारदर्शक हो जाना), अति निकटदृष्टि (दूर की वस्तु का स्पष्ट न दिखाई देना), ग्लॉकोमा (आँख के भीतर अधिक दाब और उससे होने वाली अंधता), दीर्घदृष्टि (पास की वस्तु स्पष्ट न दिखाई पड़ना) आदि रोग होते हैं। तिरोहित जीन के कारण विवर्णता (संपूर्ण शरीर के चमड़े तथा बालों का श्वेत हो जाना), ऐस्टिग्मैटिज्म (एक दिशा की रेखाएँ स्पष्ट दिखाई पड़ना और लंब दिशा की रेखाएँ अस्पष्ट), केराटोकोनस (आँख के डले का शंकुरूप होना), आदि रोग उत्पन्न होते हैं। लिंगग्रथित जीन जनित चक्षुरोगों में, जो पुरुषों में ज्यादा होते हैं, वर्णांधता (विशेषकर लाल और हरे रंगों में भेद न ज्ञात होना), दिनांधता (दिन में न दिखाई देना), रतौंधी (रात में न दिखाई देना) आदि रोग हैं।

2. चर्मरोग

इनमें एक सौ से ज्यादा आनुवंशिक रोगों की गिनती की गई है। इनमें सोरिएसिस (जीर्ण चर्मरोग जिसमें श्वेत रूसी छोड़नेवाले लाल चकत्ते पड़ जाते हैं), इक्थिआसिस (जिसमें चमड़ी में मछली के छिलकों के समान पपड़ी पड़ जाती है), केराटोसिस (जिसमें चमड़ी सींग के समान कड़ी हो जाती है) आदि प्रमुख हैं। जिसका प्रमिख कारण जेनेटिकल डिसऑर्डर भी होता है।

3. विकृतांग

अधिकांगुलता (अँगुलियों का छह या इससे अधिक होना), युक्तांगुलता (कुछ अँगुलियों का आपस में जुड़ा होना), कई प्रकार का बौनापन, अस्थियों का उचित रीति से अविकसित होना, जन्म से ही नितंबास्थि का उखड़ा रहना आदि।

4. रक्तदोष

हेमोफ़ीलिया (रक्तस्राव का न रुकना), विशेष प्रकार की रक्तहीनता आदि।

5. चयापचय रोग

मधुमेह (मूत्र में शर्करा का निकलना, डायबिटीज़), गठिया, चेहरे का विकृत तथा भयावह हो जाना आदि।

6. मानसिक रोग

सनक, मिर्गी, अल्पबुद्धिता इत्यादि का भी कारण आनुवंशिकता हो सकती हैं। विविध रोग, जैसे बहरापन, गूँगापन, कटा होंठ (हेयरलिप), विदीर्ण तालु (क्लेफ़्ट पैलेट) आदि भी आनुवंशिकता से प्रभावित होते हैं। इसके अलावा आनुवंशिकता घेघा, उच्च रक्तपाच कर्कट (कैंसर) आदि रोगों की ओर झुकाव पैदा कर देती है।

जीवाणु जनित रोग

वे रोग जो जीवाणुओं की वजह से उत्पन्न होते हैं जीवाणु जनित रोग कहलाते हैं। जीवाणु जनित रोग निम्नलिखित हैं :-

प्लेग (Plague) –

रोगजनक – बैसिलस पेस्टिस नामक जीवाणु।

लक्षण – आंखों का लाल होना, सिरदर्द, खुजली और बुखार तथा संक्रमितों के मुंह से खांसी से साथ खून आना और पेट में भयंकर दर्द होना।

प्रसार – यह बीमारी छूने मात्र से भी फैलती है।

उपचार – सल्फाड्रग्स और स्ट्रप्टोमाइसीन नामक दवाओं का उपयोग।

इसका संक्रमण चूहों पर पाए जाने वाले पिस्सुओं से होता है क्योंकि पिस्सुओं के शरीर में प्लेग का बैक्टीरिया पाया जाता है। जेनोप्सला केओपिस नामक पिस्सू प्लेग का सबसे भयानक पिस्सू है क्योंकि यह बड़ी आसानी से चूहों से मानव तक पहुँच जाता है।

पीलिया या हेपेटाइटीस (Jaundice) –

रोगजनक – लैप्टोस्पाईरा जीवाणु

लक्षण – सिर दर्द, लो-ग्रेड बुखार, मतली और उल्टी, भूख कम लगना, त्वचा में खुजली और थकान, त्वचा और आंखों का सफेद भाग पीला पड़ जाना तथा मल पीला और मूत्र गाड़ा हो जाना।

प्रसार– संदूषित जल के उपयोग के कारण।

उपचार – न्यू लिवफ़ीट दवा , हेपटाइटिस B व के टीके।

आंत्र ज्वर (Typhoid)-

रोगजनक – सॉलमोनेला टाइफोसा (Solmonella Typhosa) नामक जीवाणु।

लक्षण – सिरदर्द, कब्ज या डायरिया, तेज बुखार (103° फेरेनहाइट), भूख ना लगना, लिवर और स्प्लीन का बढ़ जाना, सीने पर लाल रंग के निशान, थकान, ठंड लगना, दर्द और कमजोरी महसूस होना, पेट में दर्द होना।

प्रसार – यह पानी की गंदगी से फैलता है।

उपचार – क्लोरोमाइसिटिन नामक दवा।

इसे आंत के बुखार के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग में आंत्र और प्लीहा की योजनी ग्रंथियां बढ़ जाती हैं।

तपेदिक या राजयक्ष्मा (Tuberculosis) –

इसे सामान्यतः टीबी कहते है।

यह रोग काक रोग या यक्ष्मा भी कहलाता है।

रोगजनक – माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस नामक जीवाणु।

लक्षण – ज्वर, रात में पसीना आना, भूख, वजन व शक्ति में कमी आना, पाचन व तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ी।

प्रसार – रोगी के साथ बैठने, सोने, खाने, पीने तथा संक्रमित पशु का दूध पीना आदि।

उपचार – स्ट्रेप्टोमाइसिन, विटामिन B-काम्प्लेक्स तथा आइसोनिएजिड उपयोगी औषधियाँ।

हैजा (Cholera) –

रोगजनक – विब्रियो कॉलेरा नामक जीवाणु।

लक्षण – डायरिया, उल्टी और मतली, सुस्ती, डिहाइड्रेशन, मांसपेशियों में ऐंठन, तेज पल्स, इलेक्ट्रोलाइट का असंतुलन, अत्यधिक प्यास, सूखी स्किन और सूखा मुंह आदि।

प्रसार – इसका संक्रमण मक्खयों द्वारा होता है।

उपचार – Dukoral और Shanchol mORC वैक्स टीके।

डिप्थीरिया (Diptheria) –

रोगजनक – कोरोनोबैक्टीरियम डिप्थीरिया नामक जीवाणु।

लक्षण – इसका प्रभाव कंठ या गले पर होता है, बच्चो में आलस , सुस्ती, बुखार आना, शरीर में तांतिका तंत्र,फेफड़ो को प्रभित करना , नाक से खून आना।

प्रसार – रोगी के साथ खाने, पीने, सोने, तथा मक्खियों के द्वारा जीवाणु फैलते है।

उपचार – बच्चो में DPT (डिप्थीरिया एंटी टॉक्सिन) का टीका , तथा एंटीबॉयोटिक्स दवाईयां जैसे – पेनिसिलिनइरिथ्रोमाइसिन आदि।

टिटनेस (Tetanus) –

टिटनेस को धनुष्टंकार या लॉक-जॉ के नाम से भी जाना जाता है।

रोगजनक – बैसीलस टेटनी नामक जीवाणु।

प्रसार – टिटनेस के जीवाणु घाव से होकर शरीर में प्रवेश करते हैं।

लक्षण – अचानक पेट व शरीर की अन्य मांसपेशियों में ऐंठन होना, पूरे शरीर में अकड़न महसूस होना, जबड़ों में ऐंठन और अकड़न, लार टपकना, बुखार होना, ज्यादा पसीना आना, हाथों और पैरों में ऐंठन होना, चिड़चिड़ापन, निगलने में परेशानी, ब्लड प्रेशर बढ़ना, दौरे आना आदि।

उपचार – DTaP, Tdap, DT, and Td टीकों का उपयोग। इनमें से दो टीकें (DTaP and DT) 7 वर्ष की अवस्था से बड़े बच्चों को दिये जाते है तथा दो टीकें (Tdap and Td) बड़े बच्चों एवं वयस्कों को दिये जाते है।

निमोनिया (Pneumonia) –

रोगजनक – डिप्लोकोकस न्यूमोनी नामक जीवाणु।

लक्षण – कमजोरी, थकान महसूस, बलगम वाली खांसी, बुखार के साथ पसीना, कंपकंपी महसूस होना, बेचैनी होना, भूख लगनी कम या बंद हो जाना।

उपचार – एंटीबायोटिक का उपयोग।

काली खाँसी (Whooping Cough) –

रोगजनक – हीमोफिलिस परटूसिस नामक जीवाणु।

लक्षण – नाक का बहना या नाक का बंद होना, छींक, आँख से पानी आना सूखी खांसी, गले में खराश , थोड़ा बुखार आदि।

प्रसार – इसका प्रसार हवा द्वारा होता है।

उपचार – DPT का टीका लगाया जाता है।

कोढ़/कुष्ठ (Leprosy)-

रोगजनक – माइकोबैक्टीरियम लेप्री नामक जीवाणु।

लक्षण – कोढ़ से चमड़ी पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है, बदन के किसी हिस्से में चमड़ी पर धब्बा, नाक के छेद मोटे और सख्त होना, नाक से खून भी बहना, साँस लेने में कठिनाई होना, नाक की हड्डी गलना, हाथों और पावों के पंजे में लकवा होना।

उपचार – MDT दवाओं का प्रयोग।

गोनोरिया (Gonorrhoea) –

रोगजनक – नाइसेरिया गोनोरिया

प्रसार – रोगी के साथ संभोग करने से भी यह रोग फैलता है।

पुरुषो में लक्षण – लिंग की नोक से असामान्य सफेद, पीले या हरे रंग का निर्वहन (द्रव निकलना), पेशाब के दौरान दर्द या जलन, शिश्नाग्रच्छद (फोरस्किन) की सूजन, अंडकोष या प्रोस्टेट ग्रंथि में दर्द एवं पीड़ा (हालांकि बेहद कम) होता है।

स्त्रियों में लक्षण – योनि से असमान्य गाढ़ा द्रव निकलना, जो कि हरा या पीले रंग का हो सकता है, पेशाब करते समय दर्द होना, पेट के निचले हिस्से में दर्द या पीड़ा (यह बेहद कम सामान्य है), मासिक धर्म के बीच में खून बहना या मासिक धर्म के दौरान अत्यधिक रक्त (बेहद कम) बहना।

उपचार – संक्रमण के ज़ोखिम को कंडोम का उपयोग करना।

इस रोग के प्रभाव से स्त्रिंया बाँझ हो सकती है।

 

विषाणु जनित रोग

मानव शरीर में विषाणु या वायरस के कारण होने वाले रोगों को विषाणु जनित रोग (Viral Diseases or Viral Infection) कहते हैं।

कोरोना (corona) –

रोगजनक – कोरोना वायरस

लक्षण– बुखार, थकान, गले कि खराश, सुखी खासी, सांस लेने मे कठिनाई, नाक का बंध होना, बहती नाक आदि।

प्रसार – संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से तथा मरीज़, के खांसने से या छींकने से आती बूंदों के गिरने के स्थान या वस्तु के साथ संपर्क करने से।

उपचार – वैक्सीन लगवाना तथा मास्क का प्रयोग।

जुकाम (Common Cold) –

रोगजनक  राइनोवायरस

लक्षण – खांसी, नाक बहना, नासिकामार्ग में अवरोध और गले की खराश।

प्रसार – छींकने से वायु में मुक्त बिंदुकणों द्वारा, संक्रमित व्यक्ति द्वारा किसी वस्तू को छूनें से।

उपचार – एस्पिरिन (Aspirin)एंटीहिस्टेमीन (Anti-histamines)नेजल स्प्रे (Nasal Spray)

लगभग 75 % मामलों में राइनोवायरस (Rhinovirus) तथा शेष में कोरोना वायरस (Corona Virus) द्वारा होता है।

पोलियो (Poliomyelitis) –

रोगजनक – निस्यंदी विषाणु (Filterable Virus)

लक्षण – उल्टी के साथ सिरदर्द, अकड़न और पीठ दर्द, गर्दन में दर्द, मांसपेशियों में कोमलता या कमजोरी, हाथ और पैर में दर्द और जकड़न, गले में खरास, थकान।

उपचार – ओरल पोलियो वैक्‍सीन।

इसका प्रभाव केंद्रीय नाड़ी जाल पर होता है। इससे रीढ़ की हड्डी और आंत के कोशिकाएं ख़त्म हो जाती हैं। इसके इलाज़ के लिए बच्चों को पोलियोरोधी दवा दी जाती है। पोलियो के टीके की खोज जॉन साल्क ने की थी परन्तु वह इंजेक्शन द्वारा दी जाने वाली वैक्सीन थी। इसके बाद एल्बर्ट सेबीन ने 1957 में मुख से ली जाने वाली पोलियो ड्राप की खोज की।

एड्स (AIDS) –

रोगजनक – H.I.V (Human ImmunoDeficiency Virus)

लक्षण – हैजा, थकान, बुखार, सिरदर्द, मतली व भोजन से अरुचि, लसीकाओं में सूजन आदि।

प्रसार – यह रोग संभोग, इन्फेक्टेड रक्ताधान और इन्फेक्टेड इंजेक्शन की सुई के प्रयोग करने से फैलता है।

उपचार – रिबाबाइरीन, सुमारीन, साइक्लोस्पोरीन, अल्फ़ा-इंटरफेरॉन आदि दवाओं का इस्तेमाल।

डेंगू ज्वर (Dengue Fever or Break Bone Fever) –

अन्य नाम – हड्डीतोड़ बुखार।

रोगजनक – एडीज़ मच्छर

लक्षण – बहुत तेज बुखार, सर, आँख, पेशी व जोड़ों में भयंकर पीड़ा।

उपचार – टायलेनोल या पैरासिटामोल।

ट्रेकोमा (Trachoma) –

रोगजनक – क्लामिड्या ट्रेकोमैटिस नामक वायरस।

लक्षण – हल्की खुजली और आंखों में जलन, पलकों खासकर ऊपरी पलक और लिम्फोमा नोड में सूजन, पलक के अंदर की ओर छोटी-सी सफेद गांठ, हल्का दर्द, लालिमा आ जाना।

उपचार – पेनीसिलीन और क्लोरोमाइसीटीन।

रेबीज (Hydrophobia) –

रोगजनक – न्यूरोट्रोपिक लाइसिसिवर्स (Neurotropic Lysaavirus) वायरस।

लक्षण – दर्द होना, थकावट महसूस करना, सिरदर्द होना, बुखार आना, मांसपेशियों में जकड़न होना, घूमना-फिरना ज्यादा हो जाता है, चिड़चिड़ा होना था उग्र स्वाभाव होना, व्याकुल होना।

प्रसार – यह रोग कुत्ते, बिल्ली, सियार और भेडि़ए के काटने या जख्म को चाटने से होता है।

उपचार – इंट्राडर्मल इंजेक्शन।

रेबीज के रोकथाम के लिए इसके टीके की खोज लुई पाश्चर ने की थी।

मेनिनजाइटिस (Meningitis) –

रोगजनक नीसेरिया मेनिंगिटाइडिस वायरस

लक्षण – उच्च बुखार या ठंड लगना, भ्रम होना, हाथ और पैर ठंडे होना, मांसपेशियों में गंभीर दर्द होना, गहरे बैंगनी चकत्ते दिखना, प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता और गर्दन का अकड़ना।

उपचार – कॉर्टिकोस्टेरॉयड दवा।

गलसुआ (Mumps) –

रोगजनक – मम्पस वायरस

लक्षण – बुखार,सिर दर्द, भूख न लगना, चबाने और निगलने में समस्या।

प्रसार – रोगी की लार से ही इस वायरस का प्रसार होता है।

उपचार – नमक के पानी से सिकाई या टेरामाइसिन का इंजेक्शन

इस रोग से मनुष्य की लार ग्रंथि प्रभावित होती है। शुरुवात में सर दर्द, कमजोरी व झुरझुरी महसूस होती है। एक दो दिन बुखार रहने के बाद कान के नीचे स्थित पैरोटिड ग्रंथि में सूजन आ जाती है।

चेचक (Small Pox) –

रोगजनक – वैरियोला नामक वायरस।

लक्षण – सर, पीठ, कमर और उसके बाद पूरे शरीर में भयंकर दर्द होना , तथा शरीर पर लाल दाने पड़ जाना।

उपचार – चेचक के टीके।

छोटी माता (Chiken Pox) –

रोगजनक – हर्पीज वायरस

लक्षण – लाल, उभरे दाने से आरंभ होना, दाने फफोलों में बदलना, मवाद से भरना, फूटना और खुरदरे पड़ना, प्रमुख रूप से चेहरे, खोपड़ी और रीढ़ पर दिखाई देना तथापि भुजाओं, टांगो पर भी यह होते हैं, तेज खुजली होना, कमर में तेज दर्द होना, सीने में जकड़न होना, हलका सा बुखार होना।

उपचार – एंटीबॉयोटिक का उपयोग करना।

खसरा (Measles) –

रोगजनक – मोर्बिलीवायरस

लक्षण – बुखार, खांसी, नाक बहने, लाल आँखें और मुंह के अंदर सफेद धब्बे होना, 3-4 दिन बाद शरीर पर लाल दाने पड़ जाना।

उपचार – MMR वैक्सीन।


            Hiiii  Frndzzzzz…

  कैसे हैं आप सब ?????

     आपसे गुज़ारिश करता हूँ कि यह पोस्ट पसंद आने पर Like,Comments और Share ज़रूर करें ताकि यह महत्वपूर्ण Data दूसरो तक पहुंच सके और मैं इससे और ज़्यादा Knowledgeable Data आप तक पहुंचा सकू जैसा आप इस Blogger के ज़रिए चाहते हैं ।

      आपके उज्जवल भविष्य की कामनाओं के साथ ....

                                                 नुरूल ऐन अहमद   

                                            Hell lot of Thnxxxxxx


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