Wednesday, March 23, 2022

विश्व के प्रमुख मरुस्थल/रेगिस्तान

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विश्व के प्रमुख मरुस्थल/रेगिस्तान

   विश्व के प्रमुख मरुस्थल/रेगिस्तान


                 By:-- Nurool Ain Ahmad 
     
  • भूमध्य रेखा को विषुवत रेखा अथवा 0 डिग्री अक्षांश रेखा कहा जाता है|पृथ्वी पर 900अक्षांश रेखाएं उत्तरी गोलार्द्ध में तथा 900अक्षांश रेखाएं दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित हैं | विषुवत रेखा पर वर्षभर सूर्य की किरणें लम्बवतपड़ती हैं|अत: सूर्यातप की सबसे ज्यादा मात्रा विषुवत रेखा पर ही प्राप्त होती है |सूर्यातप की अधिक मात्रा होने के कारण विषुवत रेखा पर हवाएं गर्म होकर ऊपर उठने लगती हैं जिससे संवहनीय धाराओं का निर्माण होता है |
  • विषुवत रेखा पर सूर्यातप के कारण सागरों की सतह से हवाएं गर्म होकर जलवाष्प के रूप में ऊपर उठती हैं | वायुमंडल में जलवाष्प के रूप में उठी हुई सागरीय हवाएं ठण्डी होकर जल बूंदों में परिवर्तित हो जाती हैं जिससे वर्षा होती है | यही कारण है कि विषुवत रेखा पर वर्षभर वर्षा होती है |
  • विषुवत रेखा पर वर्षभर वर्षा होती है इसलिए यहाँ मरूस्थल नहीं पाये जाते हैं|विषुवत रेखा पर वर्षा वन पाये जाते हैं | यह घने जंगलों का क्षेत्र होता है| यहाँ मरूस्थल की कल्पना नहीं की जा सकती है|विषुवत रेखा पर उष्णकटिबंधीय निम्न वायुदाब का क्षेत्र पाया जाता है |
  • पृथ्वी पर 30-40 उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उपोष्ण जलवायु का क्षेत्र होता है | इसे उच्च वायुदाब का क्षेत्र भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ हवाएं नीचे की ओर बैठती हैं|उपोष्ण उच्चवायु दाब के क्षेत्र में वर्षा नहीं होती है इसका कारण यह है किधरातल पर नीचे की ओर उतरने वाली हवाएं वर्षा नहीं करती हैं|
  • पृथ्वी पर 30-40० अक्षांश के मध्य के क्षेत्र सबसे शुष्क होते हैं |चूँकि 30-40अक्षांशों के बीच वर्षा नहीं होती है इसलिए उपोष्ण उच्च वायुदाब के क्षेत्र में महाद्वीपों के जो भी भूभाग आते हैं, वे सूखे रह जाते है|वर्षा नही होने के कारणइन क्षेत्रों में मरूस्थल का विकास हो जाता है |विश्व के सभी मरूस्थल 30-40 अक्षांशों के मध्य पाये जाते हैं |
  • महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर हमेशा ठण्डी जलधारा तथा महाद्वीपों के पूर्वी तटों पर गर्म जलधारा का प्रवाह होता है |
  • महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर ठण्डी जलधारा प्रवाहित होती है जिसके कारण पश्चिमी तटों पर प्रवाहित होने वाले जल का वाष्पीकरण नहीं हो पाता है |जल का वाष्पीकरण नही होने के कारण महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर वर्षा नहीं हो पाती है |यही कारण है कि महाद्वीपों के पश्चिमी भाग में मरूस्थलों का विकास हुआ है |

           विश्व के प्रमुख मरुस्थल/रेगिस्तान

नामदेशक्षेत्रफल (किमी.)
1सहारा मरुस्थलउत्तरी अफ्रीका90,65,000
2लिबयान मरुस्थलउत्तरी अफ्रीका16,83,500
3आस्ट्रेलियन मरुस्थलऑस्ट्रेलिया15,54,000
4ग्रेट विक्टोरिया मरुस्थलऑस्ट्रेलिया3,38,000
5अटाकामा मरुस्थलउत्तरी चिली1,80,000
6पेंटागोनियन मरुस्थलअर्जेंटीना6,73,000
7सीरियन मरुस्थलअरब3,23,800
8अरब रेगिस्तान मरुस्थलअरब2,30,00,00
9गोबी मरुस्थलमंगोलिया10,36,000
10रब आल खाली मरुस्थलअरब6,47,500
11कालाहारी मरुस्थलबोत्स्वाना5,18,000
12ग्रेट सेंडी मरुस्थलऑस्ट्रेलिया3,40,000
13ताकला माकन मरुस्थलचीन3,27,000
14अरुनता मरुस्थलऑस्ट्रेलिया310800
15कराकुम मरुस्थलदक्षिण-पश्चिमी तुर्किस्तान2,97,900
16नूबियन मरुस्थलउत्तरी अफ्रीका2,59,000
17थार मरुस्थलउत्तरी-पश्चिमी भारत2,59,000
18किजिलकुल मरुस्थलमध्य तुर्किस्तान2,33,100
19तनामी मरुस्थलऑस्ट्रेलिया37,500
20नेगेव मरुस्थलइजराइल12,170
21मोजावे मरुस्थलअमेरिका
22दि ग्रेट बेसिन मरुस्थलअमेरिका4,09,000
23नामीब मरुस्थलनामीबिया1,35,000
24डेथ वैली मरुस्थलपूर्वी कैलिफ़ोर्निया
25चिहोहुआ मरुस्थलउत्तरी अमेरिका5,18,000
26सिम्पसन मरुस्थलऑस्ट्रेलिया170,000
27गिब्सन मरुस्थलपश्चिमी ऑस्ट्रेलिया156,000
28मंगोलिया मरुस्थलएशिया व रुस के बीच10,00,000
29नूबियन मरुभूमिसूडान
30मोजेव मरुस्थलसंयुक्त राज्य अमेरिका
31कालाहारी रेगिस्तानदक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका90,00,000
32अटाकामा मरुस्थलचिली1,05,000
33रूब-अल-खाली मरुस्थलसऊदी अरब
34सोनोरान मरुस्थलमैक्सिको
  • विश्व के मरुस्थलों में सर्वाधिक जनसंख्या का घनत्व थार मरूस्थल में पाया जाता है |
  • काराकुम मरूस्थल और काइजिलकुम मरूस्थल कैस्पियन सागर झील के पश्चिम में स्थित है |
  • कैस्पियन सागर के दक्षिण में ईरान स्थित है| यहाँ दस्त-ए-लुट और दस्त-ए-कबीर नामक मरुस्थलों का विस्तार है |
  • लाल सागर के उत्तर में अरब का प्रायद्वीप स्थित है| अरब प्रायद्वीप विश्व का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है | अरब प्रायद्वीप पूरी तरह से मरूस्थलीय है|इस प्रायद्वीप का सबसे बड़ा देश सउदी अरब है | अरब प्रायद्वीप में पेट्रोलियम का विशाल भण्डार संचित है |
  • अफ्रीका महाद्वीप का लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भाग मरूस्थलीय है | अफ्रीका महाद्वीप के उत्तर में सहारा का मरूस्थल स्थित है | सहारा विश्व का सबसे बड़ा मरूस्थल है |
  • सहारा मरूस्थल में दो छोटे-छोटे मरूस्थल स्थित हैं, जो निम्नलिखित हैं –

(i)     लीबिया का मरूस्थल

(ii)    नूबियन का मरूस्थल

  • हॉर्न ऑफ अफ्रीका के देशों में सोमालिया एक प्रमुख देश है |इसे सोमाली मरूभूमि या सोमालिया का मरूस्थल भी कहते हैं |
  • अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण में दो मरूस्थल स्थित हैं –

(i)     कालाहारी मरूस्थल

(ii)    नामीब मरूस्थल

 

  • नामीब मरुस्थल नामीबिया में स्थित है |कालाहारी मरुस्थल मुख्य रूप से बोत्सवाना में स्थित है |किन्तु इसका विस्तार तीन देशों बोत्सवाना, नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका में है | कालाहारी मरूस्थल का प्रमुख जीव शुतुरमुर्ग है |
  • उत्तरी अमेरिका महाद्वीप में दो मुख्य मरूस्थल स्थित हैं –

(i)     ग्रेट बेसिन का मरूस्थल

(ii)    सोनोरन मरूस्थल

 

  • सोनोरन मरूस्थल का उत्तरी भाग संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित है जबकि दक्षिणी भाग मैक्सिको में स्थित है |
  • दक्षिण अमेरिका महाfद्वीप पर दो प्रमुख मरूस्थल स्थित हैं –

(i)     आटाकामा मरूस्थल

(ii)    पैंटागोनिया मरूस्थल

 

  • दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के पश्चिमी तट पर उत्तर से लेकर दक्षिण तक एण्डीज पर्वत का विस्तार है | एण्डीज पर्वत के पूर्व में विषुवत रेखा के साथ-साथ सदाबहार वर्षा वन पाये जाते हैं | यहाँ से विश्व की सबसे बड़ी नदी प्रवाहित होती है, इसे अमेजन नदी कहते हैं |
  • दक्षिण अमेरिका महाद्वीप पर वर्षा एण्डीज पर्वत के पूर्व में विषुवत रेखा के आस-पास ही होती है और एण्डीज पर्वत के पश्चिम का क्षेत्र पूरी तरह से सूखा रह जाता है | इसका एक कारण यह भी है कि एण्डीज के पश्चिम में पेरू की ठण्डी जलधारा प्रवाहित होती है |
  • दक्षिण अमेरिका महाद्वीप परएण्डीज पर्वत के पश्चिम में आटाकामा मरुस्थल का विकास हुआ है| आटाकामा मरुस्थल चिली के उत्तरी भाग में स्थित है| आटाकामा मरूस्थल में एक अरीका नामक स्थान है | अरीका दुनिया का सबसे शुष्कतम स्थल है | पैंटागोनिया का पठार अर्जेंटीना में स्थित है |
  • आस्ट्रेलिया में वर्षा ग्रेट डिवाडिंग रेंज के पूर्वी ढाल पर होती है| ग्रेट डिवाडिंग रेंज को पश्चिम की तरफ बढ़ने पर वर्षा की मात्रा घटती जाती है |
  • आस्ट्रेलिया महाद्वीप के पश्चिम में आस्ट्रेलिया की ठण्डी जलधारा प्रवाहित होती है |ठण्डी जलधारा प्रवाहित होने के कारण यहाँ वर्षा नहीं हो पाती है|अत: आस्ट्रेलिया का पश्चिमी भाग पूरी तरह से मरुस्थलीय है |
  • आस्ट्रेलिया के मरूस्थल में छोटे-छोटे कई मरूस्थल स्थित हैं|जैसे-ग्रेट विक्टोरिया, ग्रेट सैंडी, गिब्सन, सिम्पसन बार्बटन, स्टुअर्ट आदि |


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Wednesday, March 16, 2022

गुप्तकाल -प्रशासन, वास्तुकला स्थापत्य

 

                   गुप्तकाल -प्रशासन, वास्तुकला स्थापत्य


गुप्तकाल -प्रशासन, वास्तुकला स्थापत्य


                By:-- Nurool Ain Ahmad 

   

गुप्तकाल साम्राज्य प्रशासन(Administration)

गुप्तकालीन शासकों ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्त शासकों ने उन क्षेत्रों के प्रशासन (Administration) में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जहाँ के शासकों ने उनके सामन्तीय आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि गुप्त राजा केवल अपने सामन्तों के माध्यम से शासन करते थे।

उनकी एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था (Administration) थी जो उन क्षेत्रों में लागू थी, जिन पर उनका सीधा-साधा नियंत्रण था।

 

राजा- 

राजा ही प्रशासन (Administration) का मुख्य आधार था। समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त इत्यादि ने महाराजाधिराज और परमभट्टारक जैसी उपाधियाँ धारण की और अश्वमेध यज्ञ के द्वारा अन्य छोटे शासकों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

यद्यपि राजा में सर्वोच्च शक्ति निहित थी, फिर भी उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह धर्म के अनुरूप कार्य करे और उसके कुछ निश्चित कर्तव्य भी थे राजा का यह कर्तव्य था कि वह युद्ध और शांति के समय में राज्य की नीति को सुनिश्चित करे।

किसी भी आक्रमण से जनता की सुरक्षा करना राजा का मुख्य कर्तव्य था। वह विद्वानों और धार्मिक लोगों को आश्रय देता था। सर्वोच्च न्यायाधीश होने के कारण वह न्याय प्रशासन (Administration) की देखभाल धार्मिक नियमों एवं विद्यमान रीतियों के अनुरूप ही करता था।

केन्द्रीय एवं प्रांतीय अधिकारियों की नियुक्ति करना भी उसका कर्तव्य था। शासन संचालन में रानियों का भी महत्व था जो अपने पति के साथ मिलकर कभी-कभी शासन चलाती थी।  मौर्यों के समान ही गुप्त प्रशासन (Administration) की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि केन्द्र से लेकर ग्राम तक प्रशासन की सुविधा के लिए क्षेत्र का विभाजन किया गया था।

गुप्त शासक शासन का केन्द्र बिन्दु हुआ करते थे। शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक एवं वंशानुगत थी लेकिन ज्येष्ठाधिकार जैसे तत्व कम ही दिखाये पड़ते हैं।

मंत्रिपरिषद और दूसरे अधिकारीगण :

गुप्त शासक मंत्रियों से सलाह लिया करते थे और सभी महत्वपूर्ण मामलों पर अपने अधिकारियों को लिखित आदेश या संदेश जारी करते थे।राज्य कार्य में सहायता देने के लिए मंत्री एवं अमात्य हुआ करते थे।

मौर्यकाल की तुलना में न केवल अधिकारियों की संख्या कम थी बल्कि उस तरह की श्रेणी व्यवस्था में भी परिवर्तन दिखाई पड़ता है। मंत्रियों की नियुक्ति राजा के द्वारा की जाती थी।

केन्द्रीय स्तर के अधिकारियों का चयन ’अमात्य’ श्रेणी से तथा प्रांतीय स्तर के अधिकारियों का चयन ’कुमारामात्य’ श्रेणी से होता था। गुप्तकाल में एक अधिकारी एक साथ अनेक पद धारण करता था, जैसे हरिषेण- कुमारामात्य, संधिविग्राहक एवं महादंडनायक था।

इसी काल से पद वंशानुगत भी होने लगे थे क्योंकि एक ही परिवार की कई पीढि़याँ ऊँचे पदों को धारण करती थीं। इसकी जानकारी करमदंडा अभिलेख से होती है। इन अधिकारियों को वेतन एवं भूमिदान दोनों दिया जाता था।

राजा की सहायता हेतु मंत्रिपरिषद होती थी जिसके सदस्य अमात्य कहलाते थे अधिकांश मंत्रियों के पद वंशानुगत थे

गुप्तकाल के प्रमुख अधिकारी

  • प्रतिहार – अंतपुर का रक्षक
  • महाप्रतिहार – राजमहल का प्रधान सुरक्षा अधिकारी
  • महाबला अधिकृत – सेना का सर्वोच्च अधिकारी
  • अमात्य  – नौकरशाह
  • कुमार अमात्य :- उच्च पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग
  • महा सेनापति अथवा महाबलादिकृत :– सेना का सर्वोच्च अधिकारी
  • महासंधिविग्रहिक :- शांति और वैदेशिक नीति का
  • महादंडनायक :- युद्ध एवं न्याय का मंत्री
  • ध्रुवाधिकरण :– भूमि कर वसूलने वाला प्रमुख अधिकारी
  • महाक्षपटलिक :– राजा के दस्तावेजों और राजाज्ञा को लिपिबद्ध करने वाला
  • महामंडलाधिकृत :– राजकीय कोष का प्रमुख अधिकारी
  • दंडपाशिक :- पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी
  • विनयस्थितिस्थापक :- धार्मिक मामलों का अधिकारी
  • पुस्तकाल – भूमि का लेखा जोखा रखने वाला अधिकारी
  • शौल्किक – सीमा शुल्क विभाग का प्रधान
  • गोल्मिक – वन अधिकारी
  • पुरपाल – नगर का मुख्य अधिकारी
  • अग्रहारिक – दान विभाग का प्रधान
  • रणभंडागारिक – सेना के सम्मान की व्यवस्था कर रखने वाला पदाधिकारी
  • करणिक – लिपिक

अधिकारियों को नगद वेतन दिया जाता था

सैन्य व्यवस्था :

गुप्त शासकों की विशाल एवं संगठित सेना हुआ करती थी। राजा स्वयं कुशल योद्धा होते थे तथा युद्ध में भाग लेते और सेना का संचालन करते थे। सेना के चार अंग पदाति, रथरोही, अश्वारोही, गजसेना

  • महाबलाधिकृत :- सेना प्रमुख
  • महापीलूपति :- गज सेना प्रधान
  • भटाशवपति :- घुड़सवारी
  • चमूय :- पदाति सेना
  • रणभांडगारिक:- सेना के सामान की व्यवस्था

प्रमुख अस्त्र-शस्त्र:- परशु, शर, शंकु, भिन्दिपाल, तोमर, नारच आदि।

गुप्तकालीन प्रसिद्ध मंत्री

  • वीरसेन – चंद्रगुप्त द्वितीय का संधिविग्रहक
  • पृथ्वीसेन – कुमारगुप्त का प्रथम का मंत्री
  • हरिषेण – समुद्रगुप्त का संधिविग्रहक
  • शिखर स्वामि – चंद्रगुप्त द्वितीय मंत्री
  • आम्रकाद्दर्व – चन्द्र गुप्त द्वितीय का सेनापति।

न्याय व्यवस्था : 

पूर्वकाल की तुलना में गुप्तकालीन न्याय-व्यवस्था अत्यधिक विकसित अवस्था में थी। पहली बार स्पष्ट तौर पर न्याय व्यवस्था और इसमें दीवानी व फौजदारी अपराधों की व्याख्या की गई । इस काल में उत्तराधिकारी के लिए विस्तृत नियम बनाये गये। सम्राट देश का सर्वोच्च न्यायाधीश

महा दंडनायक, दंडनायक ,सर्व दंडनायक

चार प्रकार के न्यायालय राजा का न्यायालय ,पूग, श्रेणी ,कुल

दंड का स्वरूप मौर्यों की भाँति था। हालाँकि फाह्यान ने अपेक्षाकृत नरम दंडात्मक व्यवस्था की ओर संकेत किया है। न्याय का सर्वोच्च अधिकार राजा के पास था। प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी कानून भलीभांति परिभाषित एवं पृथकृत गुप्त काल में हुए

शिल्पी एवं व्यापारियों पर उनके अपने श्रेणियों के नियम लागू होते थे जबकि मौर्यकाल में राजकीय नियम लागू थे। गुप्त प्रशासन Administration में गुप्तचर प्रणाली के महत्व की भी सीमित जानकारी मिलती है।

प्रांतीय प्रशासन Administration

  • उपरिक:- प्रांतों को भुक्ति, देश या अवनी कहा जाता था, भुक्ति के शासक को उपरिक कहा जाता था,इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। (गोप्ता ,भोगपति ,राजस्थानीय)
  • गोफ्ता:- गुप्तकाल में सम्राट द्वारा सीधे शासित प्रदेश को देश कहा जाता था और इस देश के शासक के गोफ्ता कहलाते थे। सौराष्ट्र के गोफ्ता पर्णदत्त की नियुक्ति स्वमं सम्राट स्कन्दगुप्त ने की थी।
  • विषय:- जिले को विषय कहा जाता था, इसका प्रधान अधिकारी विषयपति (कुमारामात्य) होता था। विषय पति का प्रधान कार्यालय अधिष्ठान ! विषय पति एक समिति की सहायता से जिले का शासन चलाता था जिसे विषय परिषद कहते थे

जिसमें निम्न सदस्य होते थे

  • नगर श्रेष्टि:- नगर के महाजनों का प्रमुख।
  • सार्थवाह:- व्यवसायियों का प्रमुख।
  • प्रमुख कुलिक:- प्रधान शिल्पी।
  • प्रथम कायस्थ:- मुख्य लेखक।

विषय ग्रामों में विभक्त होते हैं थे ग्रामों का प्रधान अधिकारी ग्रामीक( ग्रामपति) ग्रामपति को महत्तर भी कहा जाता था नगर प्रशासन Administration का प्रमुख प्रमुख अधिकारी पुरपाल (नगर रक्षक,द्रांगिक ) कहलाता था

  • विषय-समिति के सदस्य को विषय-महत्तर कहा जाता था।
  • पुस्तपाल:- ग्राम के भूमि सम्बन्धी समस्त लेखों का संग्रह करने वाला व्यक्ति।
  • पेठ:- यह ग्राम समूह की इकाई थी। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।
  • अक्षयनीवी:- दान के न्यासों को कहते थे।

राजस्व प्रशासन :

भू-राजस्व राज्य की आमदनी का मुख्य साधन था। इस काल में भूमि संबंधी करों की संख्या में वृद्धि दिखायी पड़ती है तथा वाणिज्यिक करों की संख्या में गिरावट आयी।  भाग कर के अलावा भोग, खान, उद्रंग आदि कर थे जो व्यापारियों एवं शिल्पियों आदि से लिया जाता था।

वाणिज्य व्यापार में गिरावट तथा भूमि अनुदान के कारण आर्थिक क्षेत्र में राज्य की गतिविधियों में कमी आई। कर की दर 1/4 से 1/6 के बीच होती थी।

किसान हिरण्य (नगद) तथा मेय (अन्न) दोनों रूपों में भूमिकर (भाग) की अदायगी कर सकते थे। भूमि कर से जुड़े अधिकारी निम्न थे-

  • पुस्तपाल         –     लेखा-जोखा रखने वाला अधिकारी
  • ध्रुवाधिकरण    –     भूमिकर संग्रह अधिकारी
  • महाअक्षपटलिक एवं करणिक –  आय-व्यय, लेखा-जोखा अधिकारी
  • शौल्किक        –     सीमा शुल्क या भू-कर अधिकारी
  • यायाधिकरण   –     भूमि संबंधी विवादों का निपटारा करने वाला अधिकारी

प्रांत, जिला और स्थानीय (ग्राम) शासन :

संपूर्ण साम्राज्य को राष्ट्रो या भुक्तियों में विभाजित किया गया था। गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ भुक्तियों के नाम भी मिलते हैं, जैसे-बंगाल में पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति था जिसके अन्तर्गत उत्तरी बंगाल का क्षेत्र आता था।

भुक्तियों पर राजा द्वारा नियुक्त किये गये उपारिकों द्वारा सीधे-साधे शासन किया जाता था। कुमारगुप्त प्रथम के समय में पश्चिमी मालवा में स्थानीय शासक बन्धुवर्मन सहायक शासक के रूप में शासन कर रहा था।

सौराष्ट्र में पर्णदत्त को स्कन्दगुप्त के द्वारा गर्वनर नियुक्त किया गया था।प्रांत या भुक्ति को पुनः जिलों या विषयों में विभाजित किया गया था जो आयुक्तक नामक अधिकारी के अधीन होता था और कहीं-कहीं पर उसे विषयपति भी कहा जाता था।

उसको प्रांतीय गर्वनर के द्वारा नियुक्त किया जाता था। अधिकांश प्रांतीय प्रमुख राजपरिवार के सदस्य हुआ करते थे, जैसे-गोविंदगुप्त, घटोत्कच आदि। बंगाल से प्राप्त गुप्तकालीन अभिलेख से ज्ञात होता है कि जिला कार्यालय (अधिकरण) के अधिकारी बड़े स्थानीय समुदाय के भुक्तियों से ही संबंधित थे। जैसे-

  • नगर श्रेष्ठ            – शहर व्यापारी समुदाय के प्रमुख
  • सार्थवाह             – कारवाँ का नेता
  • प्रथमा-कुलिक    – कारीगर समुदाय का प्रमुख

प्रशासन Administration की सबसे छोटी इकाई ग्राम था जिसका प्रशासन Administration ग्रामसभा द्वारा चलाया जाता था। ग्राम सभा ग्राम-सुरक्षा की व्यवस्था करती, निर्माण-कार्य करती तथा राजस्व एकत्रित कर राजकोष में जमा करती थी।

इस प्रकार गुप्तकालीन शासन व्यवस्था में केन्द्रीकरण के तत्व कमजोर थे। सेना की निश्चित संख्या की जानकारी न होना, श्रेणियों के अपने नियम, आय के स्रोत में कमी तथा भूमि पर निर्भरता की वृद्धि जैसे तत्वों ने केन्द्रीय सत्ता को कमजोर किया होगा।

इसके अलावा कुछ अन्य कारकों ने भी योगदान दिया जैसे-भूमिदान गुप्तकाल में उभरा, यह एक महत्वपूर्ण सामन्ती लक्षण था क्योंकि इस समय अधिकारियों को नगद वेतन के साथ-साथ भू-दान दिये जाने के प्रमाण मिले हैं।

भू-दान दिये गये क्षेत्रों में न केवल कर वसूली बल्कि शासन का अधिकार भी दे दिया जाता था। इससे न केवल राजा के आय में कमी हुई, अपितु इसका दुष्प्रभाव केन्द्रीय कोष पर भी पड़ा।

गुप्तकालीन कला और स्थापत्य :

गुप्तकाल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व विकास हुआ। इस काल में कला की विभिन्न विधाओं, जैसे-वास्तु, स्थापत्य, चित्रकला, मृदभाँड कला आदि का सम्यक् विकास हुआ।

वास्तुकला

1. मंदिर- 

गुप्तकालीन वास्तुकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण मंदिर हैं। इस काल के महत्वपूर्ण मंदिर थे-उदयगिरि का विष्णु मंदिर, एरण के बराह तथा विष्णु के मंदिर, भूमरा का शिवमंदिर, नाचनाकुठार का पार्वती मंदिर तथा देवगढ़ का दशावतार मंदिर। (गुप्त काल का सर्वोत्कृष्ठ मंदिर झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है।)

गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषताएँ-

मंदिरों का निर्माण सामान्यतः ऊँचे चबूतरे पर हुआ था तथा चढ़ने के लिए चारों तरफ से सीढि़याँ बनायी गयी थी। प्रारम्भिक मंदिरों की छतें चपटी होती थी, किन्तु आगे चलकर शिखर भी बनाये जाने लगे।

दीवारों पर मूर्तियों का अलंकरण। मंदिर के भीतर एक चौकोर या वर्गाकार कक्ष बनाया जाता था जिसमें मूर्ति रखी जाती थी। गर्भगृह सबसे महत्वपूर्ण भाग था। गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग बना होता था।

गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर बने चौखट पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर के वर्गाकार स्तंभों के शीर्ष भाग पर चार सिंहों की मूर्तियाँ एक दूसरे से पीठ सटाये हुए बनायी गयी हैं।

गर्भगृह में केवल मूर्ति स्थापित होती थी। गुप्तकाल के अधिकांश मंदिर पाषाण निर्मित हैं।  केवल भीतरगाँव तथा सिरपुर के मंदिर ही ईटों से बनाये गये हैं।

2. स्तूप –

गुप्तकाल में मंदिरों के अतिरिक्त स्तूपों के निर्माण की भी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें सारनाथ का धमेख स्तूप तथा राजगृह स्थित ’जरासंध की बैठक’ महत्वपूर्ण है।

धमेख स्तूप 128 फुट ऊँचा है जिसका निर्माण बिना किसी चबूतरे के समतल धरातल पर किया गया है। इसके चारों कोने पर बौद्ध मूर्तियाँ रखने के लिए ताख बनाये गये हैं तथा इस पर ज्यामितीय आकृतियाँ भी उत्कीर्ण हैं।

सिंध क्षेत्र में स्थित मीरपुर खास स्तूप का निर्माण प्रारम्भिक गुप्तकाल में करवाया गया था। नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में बुद्ध का एक भव्य मंदिर बनवाया था जो तीन सौ फीट ऊँचा था।

3. गुहा-स्थापत्य :

गुहा-स्थापत्य का भी विकास गुप्तकाल में हुआ। वस्तुतः इस काल में गुहा स्थापत्य दो तरह के थे जो ब्राह्मणों तथा बौद्धों से संबंधित हैं। विदिशा के पास उदयगिरि की बुद्ध गुफा का निर्माण इसी काल में करवाया गया।

उदयगिरि पहाड़ी के पास चंद्रगुप्त द्वितीय के विदेश सचिव वीरसेन का एक लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि उसने यहाँ एक शैव गुहा का निर्माण करवाया था। वाराह-गुहा का निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में करवाया गया था।

बौद्धों से संबंधित गुहा-मुदिर इस काल में भी बनाये गये। इनमें अजन्ता तथा बाघ पहाड़ी में खोदी गयी गुफाएँ महत्वपूर्ण हैं। अजन्ता में कुल 29 गुफाएँ है जिनमें चार चैत्यगृह तथा शेष विहार हैं। इनका निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी तक किया गया था।

प्रारम्भिक गुफाएँ हीनयान तथा बाद की महायान संप्रदाय से संबंधित है। तीन गुफाएँ-16वीं 17वीं तथा 19वीं गुप्तकालीन मानी जाती हैं। इनमें 16वीं तथा 17वीं गुफायें विहार तथा 19वीं चैत्य हैं।

16वीं तथा 17वीं गुफा का निर्माण वाकाटक नरेश हरिषेण के एक मंत्री तथा सामंत ने करवाया था। अजंता के ही समान मध्य प्रदेश केे धार जिले में स्थित बाघ पहाड़ी से नौ गुफायें प्राप्त हुई हैं जिनमें से कुछ गुप्तकालीन है।

बाघ की गुफाएँ भी बौद्ध धर्म से संबंधित है। ये भिक्षुओं के निवास के लिए बनायी गयी थीं। इनमें पाण्ड्य गुफा सुरक्षित है। बाघ गुफा अपनी वास्तुकला की अपेक्षा चित्रकला के लिए अधिक प्रसिद्ध है।

चित्रकला:-

प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त इस काल में पकी हुई मिट्टी की भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई गई।  इस प्रकार की मूर्तियाँ विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा, यमुना आदि की हैं।  ये भृण्मूर्तियाँ पहाड़पुर, राजघाट, मीटा, कौशाम्बी, श्रावस्ती, अहिच्छल, मथुरा आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं।

ये मूर्तियाँ सुडौल, सुन्दर और आकर्षक हैं। मानवजाति के इतिहास में संभवत: कला की दृष्टि से अभिव्यक्ति की यह परम्परा सबसे प्राचीन है चित्रकला के द्वारा एक तलीय द्विपक्षों में भावों की अभिव्यक्ति होती है।

चित्र लिखना मानव स्वभाव का स्वाभाविक परिणाम है। इस दृष्टि से चित्र मनुष्य के भावों की चित्रात्मक परिणति हैं। प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनुमान किया जाता है कि शुंग सातवाहन युग में इस कला का विकास हुआ

जिसकी चरम परिणति गुप्त काल में हुई। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, ‘गुप्त युग में चित्र-कला अपनी पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी।अजन्ता की गुहा संख्या 9-10 में लिखे चित्र संभवत: पुरातात्विक दृष्टि से ऐतिहासिक काल में प्राचीनतम हैं।

समय के परिप्रेक्ष्य में, अजन्ता की गुहा संख्या 16 में अंकित वाकाटक शासक हरिषेण का अभिलेख महत्त्वपूर्ण है। बौद्ध चैत्य एवं विहारों में आलेखित चित्रों का मुख्य विषय बौद्ध धर्म से सम्बद्ध है।

भगवान बुद्ध को बोधिसत्व या उनके पिछले जन्म की घटनाओं अथवा उन्हें उपदेश देते हुए अंकित किया है। अनेक जातक कथाओं के आख्यानों का भी चित्रण किया गया जैसे शिवविजातक, हस्ति, महाजनक, विधुर, हस, महिषि, मृग, श्याम आदि।

बुद्ध जन्म से पूर्व माया देवी का स्वप्न, बुद्ध जन्म, सुजाता द्वारा क्षीर (खीर) दान, उपदेश राहुल का यशोधरा द्वारा समर्पण आदि बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध चित्रों का विशेष रूप से आलेखन किया गया।

अजन्ता में पहले सभी गुफाओं में चित्र बनाए गए थे। समुचित संरक्षण के अभाव में अधिकांश चित्र नष्ट हो गए। अब केवल छ: गुफाओं (1–2,9-10 तथा 16-17) के चित्र बचे हुए हैं।

इनमें से सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी के भित्ति-चित्र गुप्तकालीन हैं। सामान्यतः अजन्ता चित्रों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-कथाचित्र, प्रतिकृतियाँ (या छवि चित्र) एवं अलंकरण के लिए प्रयुक्त चित्र। गुप्तकालीन चित्रों में कुछ चित्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं।

बाघ चित्रकला-यह चित्रकला आवश्यक रूप में गुप्त काल की ही है,  जहाँ पर अजंता चित्रकला के विषय धार्मिक हैं, वहीं पर बाघ चित्रकला का विषय लौकिक है। संगीतकला का भी गुप्त काल में विकास हुआ।

वात्सायन के कामसूत्र में संगीत कला की गणना 64 कलाओं में की गई है। माना जाता है कि समुद्रगुप्त एक अच्छा गायक था। मालविकाग्नि मित्र से ज्ञात होता है कि नगरों में कला भवन थे।

गुप्तकाल मूर्तिकला

चौथी शताब्दी ईसवी सन् में गुप्त साम्राज्य की नींव पड़ने से एक अन्य युग की शुरुआत हो गई थी।  गुप्ता राजा छठीं शताब्दी तक उत्तर भारत में शक्तिशाली थे, उनके समय में कला, विज्ञान और साहित्य ने अत्यधिक समृद्धि हासिल की

गुप्तकाल में वास्तुकला के ही समान मूर्तिकला का भी विकास हुआ। इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, कुबेर, गणेश, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा आदि विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ-साथ बुद्ध, बोधिसत्व एवं जैन तीर्थकरों की मूर्तियों का भी निर्माण हुआ।

गुप्त काल के साथ-साथ भारत ने मूर्तिकला के उत्कृष्ट काल में प्रवेश किया था । भरहुत, अमरावती, सांची और मथुरा की कला एक-दूसरे केनिकट और निकट आती चली गई और मिलकर एक हो गई।  संरचना में, महिला आकृति अब आकर्षण का केन्द्र बन गई है और प्राकृतिक सौन्दर्य पृष्ठभूमि में रह गया

गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर

  • विष्णु मंदिर तिगवा- (जबलपुर मध्य प्रदेश)
  • शिव मंदिर भूमरा -(नागोद मध्य प्रदेश)
  • पार्वती मंदिर नचना-कुठार (मध्य प्रदेश)
  • दशावतार मंदिर देवगढ़(झांसी, उत्तर प्रदेश)
  • शिव मंदिर खोह(नागौद, मध्य प्रदेश)
  • भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित)

बौद्ध मूर्तियाँबौद्ध देव मंदिर ये मंदिर सांची तथा बोध गया में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूपों में एक सारनाथ का ‘धमेख स्तूप‘ईटों द्वारा निर्मित है। जिसकी ऊंचाई 128 फीट के लगभग है एवं दूसरा राजगृह का ‘जरासंध की बैठक‘ काफ़ी महत्त्व रखते हैं।

गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियों में सर्वोत्कृष्ट तीन मूर्तियाँ हैं-

  • सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति,
  • मथुरा की बुद्ध मूर्ति तथा
  • सुल्तान गंज की बुद्ध मूर्ति।

गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियाँ अभय, वरद, ध्यान, भूमिस्पर्श, चर्मचक्रप्रवर्तन आदि मुद्राओं में है। इनमें सारनाथ की बुद्ध मूर्ति अत्यधिक संुदर हैं।गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। ‘भीतरगांव का मंदिर‘ ईटों से ही निर्मित है।

वैष्णव मूर्तियाँ- गुप्तकालीन शासक वैष्णव मतानुयायी थे। अतः इस काल में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विष्णुपद नामक पर्वत पर विष्णुस्तंभ स्थापित करवाया था। भितरी लेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त ने भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित की थी।

इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। गुप्तकाल में विष्णु के वाराह अवतार की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया। उदयगिरि से इस काल की बनी हुई एक विशाल वाराह प्रतिमा प्राप्त हुई है।

शैव मूर्तिंयाँ-

 गुप्तकाल की बनी शैव मूर्तियाँ लिंग तथा मानवीय दोनों रूपों में मिलती हैं। एकमुखी शिवलिंग भुमरा के शिव मंदिर के गर्भगृह में भी स्थापित है। मुखलिंगों के अतिरिक्त शिव के अर्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मिली हैं जो संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इनमें दायां भाग पुरुष तथा बांया भाग स्त्री का है।

विदिशा से शिव के हरिहर स्वरूप की एक प्रतिमा मिली है। गुप्तकाल में मानव रूपों का निर्माण सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया था। महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा की मूर्ति उदयगिरि गुफा से मिली है जो अत्यंत ओजस्वी है।

तिगवा- तिगवा एक छोटा-सा गाँव है, जो मध्य प्रदेश के जबलपुर ज़िले से लगभग 40 मील दूर स्थित है।  यह कभी मन्दिरों का गाँव था, किंतु अब यहाँ लगभग सभी मन्दिर नष्ट हो गये हैं। तिगवां में पत्थर का बना विष्णु मन्दिर 12 फुट तथा 9 इंच वर्गाकार है।

ऊपर सपाट छत है। इसका गर्भगृह आठफुट व्यास का है। उसके समक्ष एक मण्डप है। इसके स्तम्भों के ऊपर सिंह तथा कलश की आकृतियाँ हैं। इस मन्दिर में काष्ठ शिल्पाकृतियों के उपकरण का पत्थर में अनुकरण, वास्तुशिल्प की शैशवावस्था की ओर संकेत करता है।

जैन संस्कृति का केन्द्र-

 तिगवां गुप्त काल में जैन सम्प्रदाय का केन्द्र था। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कन्नौज से आए हुए एक जैन यात्री ‘उभदेव’ ने पार्श्वनाथ का एक मंदिर इस स्थान पर बनवाया था, जिसके अवशेष अभी तक यहाँ पर विद्यमान हैं।

यह मंदिर अब हिन्दू मंदिर के समान दिखाई देता है यहाँ के खंडहरों में कई जैन मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है। मंदिर का वर्णन मंदिर का वर्णन करते हुए स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल ने लिखा है कि “यह प्राय: डेढ़ हज़ार वर्ष प्राचीन है।”

यह चपटी छतवाला पत्थर का मंदिर है। इसके गर्भगृह मे नृसिंह की मूर्ति रखी हुई है। दरवाज़े की चौखट के ऊपर गंगा और यमुना की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। पहले ये ऊपर बनाई जाती थीं किन्तु पीछे से देहरी के निकट बनाई जाने लगीं।

मंदिर के मंडप की दीवार में दशभुजी चंडी की मूर्ति खुदी है। उसके नीचे शेषशायी भगवान विष्णु की प्रतिमा उत्कीर्ण है जिनकी नाभि से निकले हुए कमल पर ब्रह्मा विराजमान हैं।

श्री राखालदास बनर्जी के अनुसार इस मंदिर में एक वर्गाकार केन्द्रीय गर्भगृह है, जिसके सामने एक छोटा-सा मंडप है। मंडप के स्तम्भों के शीर्ष भारत-पर्सिपोलिस शैली में बने हुए हैं, जिससे यह मंदिरगुप्त काल से पूर्व का जान पड़ता है




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