Saturday, November 6, 2021

मगध साम्राज्य


मगध साम्राज्य


मगध के उत्थान के कारण

                                                    By:--

                                Nurool Ain Ahmad

मगध प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। यह आधुनिक बिहार राज्य के पटना और गया जिले में फैला हुआ था। महाजनपदों में मगध, कोसल, वत्स एवं अवन्ती सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य थे। धीरे-धीर मगध ने अन्य तीन महाजनपदों को पराजित करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसकी राजधानी गिरिव्रज (वर्तमान राजगीर) थी। मगध के उत्थान के मुख्य कारण इस प्रकार है:

  • विस्तृत उपजाऊ मैदान
  • प्राकृतिक सुरक्षा
  • खनिज संसाधनों की उपलब्धता
  • व्यापार में वृद्धि
  • वन क्षेत्र तथा हाथियों की उपलब्धता
  • कृषि में लोहे के उपयोग
  • धान की रोपाई की पद्धति का विकास
  • कृषि में दासों और कर्मकारो को लगाया जाना
  • नवीन धर्मों का उदय
  • सामाजिक खुलापन व प्रगतिशील दृष्टिकोण

इस दौरान कृषि में लोहे के औज़ार उपयोग किये जाने से मगध में कृषि उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। साथ ही साथ कृषि में नयी पद्धतियों का विकास भी हुआ। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादन आवश्कता से भी अधिक होने लगा। मगध में शिल्प और उद्योग धंधों का विकास हुआ और वाणिज्य-व्यापार एवं मुद्रा अर्थव्यवस्था का विकास हुआ।

वैदिक साहित्य में छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान के मगध साम्राज्य का उल्लेख मिलता है। छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व में द्वितीय नगरीकरण भी शुरू हुआ है, जिससे राज्य निर्माण की प्रक्रिया को बल मिला। मगध साम्राज्य काल के बर्तनों से अनुमान लगाया जाता है कि इस दौरान नगर व्यवस्था अस्तित्व में थी। इन मिट्टी के बर्तनों को उत्तरी काले चमकीले मृदभांड कहा गया है। राज्य को ठोस आर्थिक और सामाजिक आधार पर प्राप्त हुआ तथा करारोपण प्रणाली स्थापित हो गयी। मगध साम्राज्य का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में किया गया है।

बाद में गुप्त और मौर्य साम्राज्य के उत्थान भी मगध में हुआ था। मगध में गणतांत्रिक व्यवस्था अस्तित्व में थी। इस दौरान ग्राम के प्रधान ग्रामक कहलाता था। वह न्यायायिक, सैन्य तथा कार्यकारी कार्य करता था। इस दौरान धर्म, विज्ञान, ज्योतिष और दर्शन का अत्यधिक विकास हुआ।

हर्यंक वंश (544-412 ईसा पूर्व)

हर्यंक वंश मगध का पहला राजवंश था। इस राजवंश का कार्यकाल 544 ईसा पूर्व से 412 ईसा पूर्व तक रहा। आरम्भ में हर्यंक वंश की राजधानी राजगृह में स्थित थी, परन्तु बाद में इसे पटना स्थानांतरित किया गया। हर्यंक वंश प्रमुख शासक व उनका कार्यकाल निम्नलिखित है:

बिम्बिसार (544-492 ईसा पूर्व)

बिम्बिसार हर्यंक वंश का पहला शासक था, उसका कार्यकाल 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व के बीच था।  बिम्बिसार ने हर्यंक राजवंश की स्थापना 544 ईसा पूर्व में की थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार ने 15 वर्ष की आयु ने राजपद का कार्यभार संभाला था। बिम्बिसार को जैन ग्रंथों में श्रेणिक के नाम से भी जाना जाता है।

बिम्बिसार ने गिरिव्रज अथवा राजगृह को मगध की राजधानी बनाया। विजय और विस्तार की नीति को अपनाते हुए अंग देश पर अधिकार कर लिया। उस समय अंग का शासक ब्रह्मदत्त था। इसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किया। बिम्बिसार ने पहला विवाह कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित की बहन कोशलदेवी से किया। दूसरा विवाह उसने वैशाली की लिच्छवी राजकुमारी चेल्लना से किया और तीसरा विवाह उसने मद्रकुल के प्रधान की पुत्री क्षेमा से किया। अनुमानित है कि बिम्बिसार के राज्य में लगभग 80,000 बस्तियां थीं।

बिम्बिसार बुद्ध का समकालीन था। ह्वेनसांग के अनुसार बिम्बिसार ने राजगीर नगर की स्थापना की थी। बिम्बिसार ने अवन्ती नरेश चंद्प्रद्योग से भी युद्ध किया। बाद में पीलिया रोग से ग्रस्त प्रद्योत के इलाज एह्तु राजवैद्य जीवक को भेजा था। बिम्बिसार बुद्ध का समकालीन था तथा वह बुद्ध का अनुयायी भी था। उसने बौद्धों को वेलवन नामक वन दान में दिया था। वह बौद्ध धर्म का प्रथम प्रमुख संरक्षक था।

अजातशत्रु (492-460 ईसा पूर्व)

अजातशत्रु बिम्बिसार का पुत्र था। उसने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके सिंहासन पर कब्ज़ा किया था। अजातशत्रु को कुणिक के नाम से भी जाना जाता था। अजातशत्रु गौतम बुद्ध और महावीर का समकालीन था। अजातशत्रु ने वज्जी के विरुद्ध युद्ध किया। उसने कोसल और काशी को पराजित किया। उसने अपने मंत्री सुनीध और वर्षकार की सहायता से वज्जी संघ में फूट डाली और वज्जी का पतन करवाया। वैशाली के विरुद्ध युद्ध में इसने रथमूसन और महाशिलाकंटक जैसे हथियारों का उपयोग किया। अजातशत्रु के कार्यकाल में मगध उत्तर भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य बना। इसने अपनी राजधानी राजगृह का सुदृढीकरण करवाया। इसके कार्यकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था। उसने राजगृह में स्तूप बनवाया और प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन भी करवाया।

उदायिन (460-440 ईसा पूर्व)

अजातशत्रु के बाद उसका पुत्र उदायिन अथवा उदयभद्र शासक बना, उसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। इसने पाटलिपुत्र नगर का निर्माण भी करवाया। वह जैन धर्म का अनुयायी था।

अन्य शासक

उदायिन के बाद अनिरुद्ध, मुंड और दर्शक जैसे शासक हुए, परन्तु वे अधिक समय तक शासन नहीं कर सके। वे अधिक योग्य व कुशल नहीं थे।

शिशुनाग वंश (412-344 ईसा पूर्व)

शिशुनाग वंश मगध साम्राज्य का दूसरा राजवंश था। इसकी स्थापना शिशुनाग ने की थी। वह अंतिम हर्यंक शासक नागदशक का अमात्य था। बौद्ध साहित्य के अनुसार राजा नागदशक को नागरिकों द्वारा निष्काषित करके शिशुनाग को राजा बनाया गया। आरम्भ में इसकी राजधानी राजगीर थी परन्तु बाद में राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानांतरित किया गया। शिशुनाग ने अवन्ती को मगध में मिलाया। कालाशोक इसका उत्तराधिकारी था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उसकी दूसरी राजधानी वज्जी थी।

कालावर्ण कालाशोक के कार्यकाल में 383 ईसा पूर्व में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। इसमें पाटलिपुत्र के अतिरिक्त वैशाली को भी अपनी राजधानी बनाया था। शिशुनाग के राज के दौरान वह वाराणसी का गवर्नर था। बौद्ध स्त्रोतों के अनुसार कालाशोक के 10 पुत्र थे, परन्तु वे कोई विशेष छाप छोड़ने में असफल रहे।

नन्द वंश (344-323 ईसा पूर्व)

नन्द वंश के दौरान मगध साम्राज्य पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में पंजाब से विन्ध्य पर्वत श्रृंखला तक फैला हुआ था। महापद्मानंद ने शिशुनाग वंश के अंतिम शासक महानन्दिन की हत्या करके नन्द वंश की नींव रखी। बौद्ध ग्रन्थ “महाबोधिवंश” में उसे उग्रसेन तथा पुरानों में सर्वक्षत्रान्तक एवं एकराट कहा गया है। खारवेल के हथिगुम्फा अभिलेख में उसकी कलिंग विजय का उल्लेख है। महापद्मानंद ने पंचाल, कसीस, हैयाय, कलिंग, अस्मक, कुरु, मैथल, शूरसेन इत्यादि राज्यों को हराया।

महाबोधिवंश के अनुसार धनानंद इस वंश का अंतिम शासक था, जिसे ग्रीक लेखक अग्रमीज़ एवं जेन्द्रमीज़ कहते थे। उसकी कुरीतियों के कारण उसे मगध की जनता द्वारा अधिक पसंद नहीं किया जाता था। इसके कार्यकाल के दौरान सिकंदर ने पश्चिम उत्तर भारत पर 326 ईसा पूर्व में आक्रमण किया था।

प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था

मगध साम्राज्य प्राचीन भारत का पहला बड़ा साम्राज्य था। इस दौरान नौकरशाही रक्त सम्बन्ध से अलग थी। बलिसधक, शौलिकक, राज्जुग्राहक और अक्षपटलाधिकृत इस काल के प्रमुख अधिकारी थे। महाजनपदों के सैनिक दोधारी तलवारी और सरकंडे के बाणों के मुख पर लोहे की नोक लगाकर उपयोग करते थे। इस दौरान धातुओं का उपयोग वृहत स्तर पर किया जाता था।

इस दौरान कृषि उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। इस काल में खेती के लिए लोहे के बने उपकरणों का उपयोग प्रारम्भ हुआ। तथा कृषि की नयी पद्धतियों का विकास भी इस काल में हुआ। इस दौरान वास की भूमि और कृषि भूमि को अलग-अलग किया गया। भूमि माप की इकाई निवर्तन कहलाती थी। छठी सदी ईसा पूर्व में व्यवसायियों ने अपने-अपने संगठन बना लिए, जिसे श्रेणी कहा जाता था। श्रेणी एक ही कार्य करने वाले लोगों का समूह था, जिसका प्रमुख श्रेष्ठिन अथवा ज्येष्ठक कहलाता था।

संभवतः इस काल में विनिमय के लिए सिक्कों का उपयोग किया जाना आरम्भ हुआ। यह सिक्के सोने और चांदी से बने थे। इस काल के सिक्के आहत सिक्के थे। इस दौरान व्यापारिक गतिविधियों में भी वृद्धि हुई। व्यापार की वृद्धि के लिए पांड्य सिद्धि संस्कार किया जाता था । छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गंगा-यमुना दोआब एवं बिहार के आस-पास के क्षेत्रों में द्वितीय नगरीय क्रान्ति हुई। प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में बुद्ध के समय के 6 प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख मिलता है।

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