हुमायूँ (1530-1556 ई०)
बाबर की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बाबर का बड़ा बेटा हुमायूँ बैठा। 30 वर्ष की आयु में आगरामें हुमायूँ को मुग़ल सल्तनत का ताज पहनाया गया था। हुमायूँ को नासिर-उद-दीन मुहम्मद के नाम से भी जाना जाता था। हुमायूँ ने अपने मुग़ल साम्रज्य को अपने तीन भाइयों (कामरान, अस्करी और हिन्दाल) के बीच बाँटा था, जिसे इतिहासकार हुमायूँ की बड़ी भूल मानते हैं।
हुमायूँ ने सर्वप्रथम 1531 ई० में कालिंजर पर आक्रमण किया। जहाँ का शासक रुद्रदेव था। हुमायूँ ने उसे हराकर दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया पर रुद्रदेव से संधि कर दुर्ग पर बिना अपना अधिकार किये वहां से अपनी सेना को हटा दिया। इतिहासकारों ने इसे हुमायूं की दूसरी बड़ी भूल माना है।
बाबर के समय से ही मुगल सल्तनत के सबसे बड़े शत्रु अफगान थे। इसलिए हुमायूँ ने 1532 ई० में शेर खाँ पर हमला कर दिया यह युद्ध दोहरिया नामक स्थल पर हुआ था। इस युद्ध में अफगानों की तरफ से नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था। इसे युद्ध में अफगानों को पराजय का सामना करना पड़ा। और हुमायूँ ने चुनार के किले पर धावा बोल उसे अपने कब्जे में ले लिया, जो उस समय अफगानी मूल के शासक शेर खाँ का किला था, शेर खां को शेरशाह सूरी के नाम से भी जाना जाता है। परन्तु शेर खाँ के आत्मसमर्पण कर देने और हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर लेने के कारण हुमायूँ ने उसका किला उसीको वापिस कर दिया। फल स्वरूप शेर खाँ ने अपने पुत्र क़ुतुब खाँ के साथ एक अफगान टुकड़ी हुमायूँ की सेवा में भेज दी।
इसी बीच चित्तोड़ की रानी और राजमाता कर्णवती (कर्मवती) ने हुमायूँ को राखी भेज गुजरात के शासक बहादुरशाह से बचाव की गुहार लगायी। बहादुरशाह एक महत्वकांक्षी शासक था वो पहले ही मालवा (1531), रायसीन (1532) और सिसोदिया वंश के शासक को पराजित कर चित्तोड़ पर अपना अधिपत्य जमा चुका था। बहादुरशाह की बढ़ती शक्ति देख हुमायूँ पहले से ही परेशान था। अतः 1535 ई० में हुमायूँ और बहादुरशाह के बीच मंदसौर में युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ ने बहादुरशाह को पराजित कर दिया पर हुमायूँ की ये जीत ज्यादा दिन न रह सकी, शीघ्र ही बहादुरशाह ने पुर्तगालियों की सहायता से पुनः गुजरात और मालवापर फिर से अपना कब्ज़ा कर लिया।
वहीं दूसरी तरफ शेर खाँ की शक्ति बढ़ने लगी थी, इसलिए हुमायूँ ने दूसरी बार 1538 ई० में चुनारगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया, पर 6 महीने तक किले को घेरे रखने के बाद भी हुमायूँ सफल न हो सका। अंततः गुजरात के शासक बहादुरशाह की सेना में तोपची रहे रूमी खाँ, जोकि मंदसौर युद्ध के बाद हुमायूँ के साथ हो गया था, रूमी खाँ के कूटनीतिक प्रयास के कारण हुमायूँ किले पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहा।
इसके बाद 1538 ई० में हुमायूँ ने बंगाल पर आक्रमण कर वहां पर मुग़ल साम्राज्य का अधिपत्य जमा लिया। परन्तु वहां से वापस आते समय 26 जून, 1539 को हुमायूँ और शेर खाँ (शेरशाह सूरी) के बीच कर्मनाशा नदीके नजदीक चौसा नामक स्थान पर ‘चौसा का युद्ध‘ लड़ा गया, इस युद्ध में हुमायूँ बुरी तरह पराजित हुआ। इस जीत से खुश होकर शेर खाँ ने अल-सुल्तान-आदिल या शेरशाह की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के जारी किये और खुतबा (प्रसंशा का भाषण) भी पढ़वाया।
इसके बाद 17 मई, 1540 को फिर से हुमायूँ और शेर खाँ के बीच कन्नौज में एक और युद्ध लड़ा गया जिसमें शेर खाँ की जीत हुई और एक बार फिर दिल्ली पर अफगानों का शासन फिर से स्थापित हुआ, जहाँ पर मुग़ल साम्रज्य से पहले अफगानों की दिल्ली सल्तनत का राज था।
कन्नौज के युद्ध में हारकर हुमायूँ ईरान जा पंहुचा और 1540 से 1555 तक घुम्मकड़ों की तरह जीवन यापन किया। परन्तु अपने देश निकला से पहले हुमायूँ ने अपने भाई हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु ‘शियमीर‘ की पुत्री हमीदा बेगम से निकाह किया और हमीदा ने कुछ समय पश्चात एक पुत्र को जन्म दिया जिसे अकबर के नाम से जाना गया जो आगे चलकर मुग़ल साम्राज्य का सबसे महान शासक बना।
1544 ई० में हुमायूँ ने ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शरण लेकर रहने लगा और युद्ध की तैयारी करने लगा। हुमायूँ ने अपने भाई कामरान से काबुल और कन्धार को छीन लिया और 15 वर्ष निर्वासन में रहने के बाद, हुमायूँ ने अपने विश्वसनीय सेनापति बैरम खाँ की मदद से 15 मई को मच्छीवाड़ा और 22 जून, 1555 को सरहिन्द के युद्ध में शेर खाँ (शेर शाह सूरी) के वंशज सिकंदर शाह सूरी को पराजित कर फिर एक बार दिल्ली पर अपना अधिपत्य कर लिया और मुग़ल साम्राज्य को आगे बढ़ाया।
परन्तु दूसरी बार हुमायूँ तख्त और राजपाठ का सुख ज्यादा दिन न भोग सका 27 जनवरी, 1556 को दिल्ली के किले दीनपनाह के शेरमंडल नामक पुस्कालय की सीढ़ी से गिरकर हुमायूँ की मृत्यु हो गयी। हुमायूँ को दिल्ली में ही दफनाया गया। दिल्ली में यमुना नदी के किनारे 1535 ई० में हुमायूँ ने ही ‘दीन-पनाह‘ नामक नये शहर की स्थापना की थी। हुमायूँ की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अकबर मुग़ल साम्राज्य के राज सिहांसन पर बैठा।
इतिहासकार लेनपूल ने हुमायूँ के बारे में टिपण्णी करते हुए कहा है कि “हुमायूँ गिरते-पड़ते ही इस जीवन से मुक्त हो गया, उसी तरह जैसे वह ताउम्र गिरते-पड़ते जिंदगी में चलता रहा।“
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