Monday, August 14, 2017

1857 का विद्रोह "Revolt of 1857"

1857 का विद्रोह  "Revolt of 1857"
विद्रोह के कारण
 आधुनिक भारतीय इतिहास मेँ 1857 का विद्रोह विशिष्ट स्थान रखता है, क्योंकि इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ माना जाता है।
 1857 के विद्रोह को जन्म देने वाले कारणों में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक सभी कारण जिम्मेदार हैं।
 ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन जनता मेँ असंतोष का बहुत बड़ा कारण था पेचीदा नयाय प्रणाली तथा प्रशासन मेँ भारतीयोँ की भागीदारी के बराबर होना विद्रोह के प्रमुख कारणोँ मेँ से एक था।
 राजनीतिक कारणोँ मेँ डलहौजी की व्यपगत नीति और वेलेजली की सहायक संधि का विद्रोह को जन्म देने मेँ महत्वपूर्ण भूमिका रही।
 विद्रोह के लिए आर्थिक कारण भी जिम्मेदार रहे। ब्रिटिश भू राजस्व नीति के कारण बड़ी संख्या मेँ किसान जमींदार अपनी भूमि के अधिकार से वंचित हो गए।
 1856 मेँ धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम द्वारा ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले लोगोँ को अपने पैतृक संपत्ति का हकदार माना गया। साथ ही अति उन्हें नौकरियों में पदोन्नति, शिक्षा संस्थानोँ मेँ प्रवेश की सुविधा प्रदान की गई। धार्मिक कार्योँ की पृष्ठभूमि मेँ इसे देखा जा सकता है।
 1857 के विद्रोह के लिए जिम्मेदार सामाजिक कारणों मेँ अंग्रेजी प्रशासन के सुधारवादी उत्साह के अंतर्गत पारंपरिक भारतीय प्रणाली और संस्कृति संकटग्रस्त स्थिति मेँ पहुंच गई, जिसका रुढ़िवादी भारतीयों ने विरोध किया।
 1857 के विद्रोह के अनेक सैनिक कारण भी थे, जिंहोने इसकी पृष्ठभूमि का निर्माण किया।
 कैनिंग ने 1857 में सैनिकों के लिए ब्राउन वैस के स्थान पर एनफील्ड रायफलों का प्रयोग शुरु करवाया जिसमें कारतूस को लगाने से पूर्व दांतो से खींचना पडता था, चूंकि कारतूस मेँ गाय और सूअर दोनों की चर्बी लगी थी इसलिए हिंदू और मुसलमान दोनों भड़क उठे।
 1857 का विद्रोह अचानक नहीँ फूट पड़ा था, यह पूर्वनियोजित विद्रोह था।
 कुछ इतिहासकार मानते हैँ कि नाना साहब ने निकटस्थ अजीमुल्ला खाँ तथा सतारा के अपदस्थ राजा के निकटवर्ती रणोली बापू ने लंदन मेँ विद्रोह की योजना बनाई।
 अजीमुल्ला ने बिठुर में नाना साहब के साथ मिलकर विद्रोह की योजना को अंतिम रुप देते हुए 31 मई, 1857 की क्रांति के सूत्रपात का दिन निश्चित किया था।
 क्रांति के प्रतीक के रुप मेँ कमल का फूल और रोटी को चुना गया। कमल के फूल को उन सभी सैन्य टुकड़ियों तक पहुंचाया गया, जिन्हें विद्रोह मेँ शामिल होना था। रोटी को एक गांव का चौकीदार दूसरे गांव तक पहुंचा था।
 चर्बी लगे कारतूस के प्रयोग को 1857 की विद्रोह का तत्कालिक कारण माना जाता है।
 चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग से चारोँ तरफ से असंतोष ने विद्रोह के लिए निर्धारित तिथि से पूर्व ही विस्फोट को जन्म दे दिया।
घटनाक्रम
 चर्बीयुक्त कारतूस के प्रयोग के विरुद्ध सर्वप्रथम कलकत्ता के समीप बैरकपुर कंपनी मेँ तैनात 19वीं 34वीं नेटिव इंफेंट्री के सैनिकोँ ने बगावत की।
 29 मार्च 1857 को मेरठ छावनी मेँ तैनात 34वीं इन्फैन्ट्री के एक सैनिक मंगल पांडे ने चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग से इनकार करते हुए अपने अधिकारी लेफ्टिनेंट बाग और लेफ्टिनेंट जनरल ह्युसन की हत्या कर दी।
 8 अप्रैल, 1857 को सैनिक अदालत के निर्णय के बाद मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दे दी गई।
 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी के सैनिकों ने विद्रोह की शुरुआत कर दिल्ली की और कूच किया।
 12 मई, 1857 को दिल्ली पर कब्जा करके सैनिकोँ ने निर्वासित मुग़ल  सम्राट बहादुर शाह जफर को भारत का बादशाह घोषित कर दिया।
विद्रोह का प्रसार
 दिल्ली पर कब्जा करने के बाद शीघ्र ही है विद्रोह मध्य एवं उत्तरी भारत मेँ फैल गया।
 4 जून को लखनऊ मेँ बेगम हजरत हजामत महल के नेतृत्व मेँ विद्रोह का आरंभ हुआ जिसमें हेनरी लॉटेंस की हत्या कर दी गई।
 5 जून को नाना साहब के नेतृत्व मेँ कानपुर पर अधिकार कर लिया गया नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया।
 झांसी मेँ विद्रोह का नेतृत्व रानी लक्ष्मी बाई ने किया।
 झांसी के पतन के बाद लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर मेँ तात्या टोपे के साथ मिलकर विद्रोह का नेतृत्व किया। अंततः लक्ष्मीबाई अंग्रेजोँ जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।
 रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु पर जनरल ह्यूरोज ने कहा था, “भारतीय क्रांतिकारियोँ मेँ यहाँ सोयी हुई औरत मर्द है।
 तात्या टोपे का वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग था। वे ग्वालियर के पतन के बाद नेपाल चले गए जहाँ एक जमींदार मानसिंह के विश्वासघात के कारण पकडे गए और 18 अप्रैल 1859 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
 बिहार के जगरीपुर मेँ वहाँ के जमींदार कुंवर सिंह 1857 के विद्रोह का झण्डा बुलंद किया।
 मौलवी अहमदुल्लाह ने फैजाबाद में 1857 के विद्रोह का नेतृत्व प्रदान किया।
अंग्रेजो ने अहमदुल्ला की गतिविधियो से चिंतित होकर उसे पकड़ने के लिए 50 हजार रुपए का इनाम घोषित किया था।
 खान बहादुर खान ने रुहेलखंड मेँ 1857 के विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया था, जिसे पकड़कर फांसी दे दी गई।
 राज कुमार सुरेंद्र शाही और उज्जवल शाही ने उड़ीसा के संबलपुर मेँ विद्रोह का नेतृत्व किया।
 मनीराम दत्त ने असम मेँ विद्रोह का नेतृत्व किया।
 बंगाल, पंजाब और दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों ने विद्रोह मेँ भाग नहीँ लिया।
 अंग्रेजो ने एक लंबे तथा भयानक युद्ध के बाद सितंबर, 1857 मेँ दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया।
विद्रोह के परिणाम
 विद्रोह के बाद भारत मेँ कंपनी शासन का अंत कर दिया गया तथा भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया।
 भारत के गवर्नर जनरल को अब वायसराय कहा जाने लगा।
 भारत सचिव के साथ 15 सदस्यीय भारतीय परिषद की स्थापना की गई।
 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा सेना के पुनर्गठन के लिए स्थापति पील आयोग की रिपोर्ट पर सेना मेँ भारतीय सैनिकों की तुलना मेँ यूरोपियो का अनुपात बढ़ा दिया गया।
 भारतीय रजवाड़ों के प्रति विजय और विलय की नीति का परित्याग कर सरकार ने राजाओं को गोद लेने की अनुमति प्रदान की।
विद्रोह का दमन और अंग्रेज अधिकारी एवं विद्रोही नेता
विद्रोह का स्थान
अधिकारी
विद्रोही नेता
इलाहाबाद
कर्नल नील
लियाकत अली
झाँसी
कैप्टन ह्यूरोज
रानी लक्ष्मीबाई
पटना
आऊट्रम / बिन्सेट आयर
कुंवर सिंह
दिल्ली
कैम्पबेल
खान बहादुर
कानपुर
कैम्पबेल
नाना साहब
बरेली
कैम्पबेल
खान बहादुर
जगदीशपुर
जनरल आयर टेलर
कुंवर सिंह
लखनऊ
कैम्पबेल
बेगम हजरत महल / बिजरिस कद्र
वाराणसी
कर्नल नील
लियाकत अली
 स्मरणीय तथ्य
 बहादुर शाह दिल्ली मेँ प्रतीकात्मक नेता था। वास्तविक नेतृत्व सैनिकों की एक परिषद के हाथों मेँ था, जिसका प्रधान बख्त खां था।
 1857 के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग था।
 यह विद्रोह सत्ता पर अधिकार के बाद लागू किए जाने वाले किसी सामाजिक विकल्प से रहित था।
 1857 के विद्रोह मेँ पंजाब, राजपूताना, हैदराबाद और मद्रास के शासकों ने बिल्कुल हिस्सा नहीँ लिया।
 विद्रोह की असफलता के कई कारण थे, जिसमेँ प्रमुख कारण था एकता, संगठन और साधनों की कमी।
 बंगाल के जमींदारों ने विद्रोहियोँ को कुचलने के लिए अंग्रेजो की मदद की थी।
 बी. डी. सावरकर ने अपनी पुस्तक भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के माध्यम से इस धारणा को जन्म दिया कि, 1857 का विद्रोह एक सुनियोजित राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम था।
 वास्तव मेँ 1857 का विद्रोह मात्र सैनिक विद्रोह नहीँ था, बल्कि इसमेँ समाज का प्रत्येक वर्ग शामिल था। विद्रोह मेँ लगभग डेढ़ लाख लोगोँ की जानेँ गई।
1857 की क्रांति के संबंध में प्रमुख उक्तियां
 वर्ष सत्तावन का विद्रोह सिपाही विद्रोह मात्र था’ - झेड राबर्ट्स
 ‘1857 की घटना सिर्फ गाय की चर्बी से उत्पन्न सैनिक उत्पात थी’ -सर जॉन लॉरेंस
 ‘1857 के विद्रो को या तो सिपाही विद्रोह या अनधिकृत राजाओं तथा जमींदारों का अनियोजित प्रयत्न अथवा सीमित किसान-युद्ध कहा जा सकता है’  -एडवर्ड टॉम्पसन तथा जी.टी. गैरेट
 ‘1857 का विद्रोह स्वतंत्र, संघर्ष नहीं धार्मिक युद्ध था'  -विलियम हॉवर्ड रसेल
 ‘1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था और यह सैनिक विद्रोह से बढ़कर और कुछ भी नहीं था   -आर.सी. मजुमदार
 भारतीय जनता का संगठित संग्राम था'  -जवाहरलाल नेहरू
 ‘1857 का विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह नहीं था, अपितु यह भारतवासियों का अंग्रेजों के विरुद्ध धार्मिक, सैनिक शक्तियों के साथ राष्ट्रीय अरिमता की रक्षा के लिए लड़ा गया युद्ध था'  -जस्टिस मेकाकी
 ‘1857 का विद्रोह स्वधर्म और राजस्व के लिए लड़ा गया राष्ट्रीय संघर्ष था'  -विनायक दामोदर सावरकर
 ‘1857 का विद्रोह मुसलमानों के षड्यंत्र का परिणाम था'    -सर जेम्स आउट्रम
 '1857 . की क्रांति भारत की पवित्र भूमि से विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का प्रयास थी'  -डॉ. सैय्यद आतहर अब्बास रिज़वी
 “1857 का विद्रोह विदेशी शासन से राष्ट्र को मुदत कराने का देशभक्तिपूर्ण प्रयास था" -विपिन चन्द्र
 “1857 का विद्रोह सचेत संयोग से उपजा राष्ट्रीय विद्रोह था”  -बेंजामिन डिजरैली
 “1857 का विद्रोह सैनिक विद्रोह होकर नागरिक विद्रोह था”   -जान ब्रूस नार्टन
 ‘1857 के विद्रोह का आरंभिक स्वरूप सैनिक विद्रोह का ही था, किन्तु बाद में इसने राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया’ -एस.एस. सेन
विद्रोह के प्रमुख केंद्र एवं नेतृत्वकर्ता
यद्यपि 1857 के विद्रोह का नेतृत्व दिल्ली के सम्राट बहादुरशाह जफर कर रहे थे परंतु यह नेतृत्व औपचारिक एवं नाममात्र का था। विद्रोह का वास्तविक नेतृत्व जनरल बख्त खां के हाथों में था, जो बरेली के सैन्य विद्रोह के अगुआ थे तथा बाद में अपने सैन्य साथियों के साथ दिल्ली पहुंचे थे। बख्त खां के नेतृत्व वाले दल में प्रमुख रूप से 10 सदस्य थे, जिनमें से सेना के 6 तथा 4 नागरिक विभाग से थे। यह दल या न्यायालय सम्राट के नाम से सार्वजनिक मुद्दों की सुनवायी करता था। बहादुरशाह जफर का विद्रोहियों पर तो नियंत्रण था ही ज्यादा संपर्क। बहादुरशाह का दुर्बल व्यक्तित्व, वृद्धावस्था तथा नेतृत्व अक्षमता विद्रोहियों को योग्य नेतृत्व देने में सक्षम नहीं थी।
कानपुर में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब सभी की पसंद थे। उन्हें कम्पनी ने उपाधि एवं महल दोनों से वंचित कर दिया था तथा पूना से निष्कासित कर कानपुर में रहने पर बाध्य कर दिया था। विद्रोह के पश्चात नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया तथा स्वयं को भारत के सम्राट बहादुरशाह के गवर्नर के रूप में मान्यता दी। 27 जून 1857 को सर ह्यू व्हीलर ने कानपुर में आत्मसमर्पण कर दिया।
लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। यहां 4 जून 1857 को प्रारंभ हुये विद्रोह में सभी की सहानुभूति बेगम के साथ थी। बेगम हजरत महल के पुत्र की स्थापना की गयी। इसमें हिन्दुओं एवं मुसलमानों की समान भागेदारी थी। यहां के प्रश्रय लिया। लेकिन विद्रोहियों ने रेजीडेंसी पर आक्रमण किया तथा हेनरी लारेंस को मोत के घाट उतार दिया।तत्पश्चात ब्रिगेडियर इंग्लिश ने विद्रोहियों का बहादुरीपूर्वक प्रतिरोध किया। बाद में सर जेम्स आउट्रम तथा सर हेनरी हैवलॉक ने लखनऊ को जीतने का यथासंभव प्रयास किया पर वे भी सफल नहीं हो सके। अंततः नये ब्रिटिश कमांडर इन-चीफ सर कोलिन कैम्पबेल ने गोरखा रेजीमेंट की सहायता से मार्च 1858 में नगर पर अधिकार प्राप्त करने में सफलता पायी। मार्च 1858 तक लखनऊ पूरी तरह अंग्रेजों के नियंत्रण में गया फिर भी कुछ स्थानों पर छिटपुट विद्रोह की घटनायें होती रहीं।
रोहिलखण्ड के पूर्व शासक के उत्तराधिकारी खान बहादुर ने स्वयं को बरेली का सम्राट घोषित कर दिया। कम्पनी द्वारा निर्धारित की गई पेंशन से असंतुष्ट होकर अपने 40 हजार सैनिकों की सहायता से खान बहादुर ने लम्बे समय तक विद्रोह का झंडा बुलंद रखा। बिहार में एक छोटी रियासत जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने यहां विद्रोह का नेतृत्व किया। इस 70 वर्षीय बहादुर जमीदार ने दानापुर से आरा पहुंचने पर सैनिकों को सुदृढ़ नेतृत्व प्रदान किया तथा ब्रिटिश शासन को कड़ी चुनौती दी।
फैजाबाद के मौलवी अहमदउल्ला 1857 के विद्रोह के एक अन्य प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे। वे मूलतः मद्रास के निवासी थे। बाद में वे फैजाबाद गये थे तथा 1857 विद्रोह के अन्तर्गत जब अवध में विद्रोह हुआ तब मौलवी अहमदउल्ला ने विद्रोहियों को एक सक्षम नेतृत्व प्रदान किया।
किंतु 1857 के विद्रोह में इन सभी नेतृत्वकर्ताओं में सबसे प्रमुख नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का था, जिसने झांसी में सैनिकों को ऐतिहासिक नेतृत्व प्रदान किया। झांसी के शासक राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात लार्ड डलहौजी ने राजा ने दत्तक पुत्र को झांसी का राजा मानने से इंकार कर दिया तथाव्यपगत के सिद्धांतके आधार पर झांसी को कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया। तदुपरांत गंगाधर राव की विधवा महारानी लक्ष्मीबाई नेमैं अपनी झांसी नहीं दूंगीका नारा बुलंद करते हुए विद्रोह का मोर्चा संभाल लिया।कानपुर के पतनोपरांत नाना साहब के दक्ष सहायक तात्या टोपे के झांसी पहुंचने पर लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह प्रारंभ कर दिया। तात्या टोपे एवं लक्ष्मीबाई की सम्मिलित सेनाओं ने ग्वालियर की ओर प्रस्थान किया जहां कुछ अन्य भारतीय सैनिक उनकी सेना से आकर मिल गये। ग्वालियर के शासक सिंधिया ने अंग्रेजों का समर्थन करने का निश्चय किया तथा आगरा में शरण ली। कानपुर में नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया तथा दक्षिण में अभियान करने की योजना बनायी। जून 1858 तक ग्वालियर पुनः अंग्रेजों के नियंत्रण में गया।
1857 का विद्रोह लगभग 1 वर्ष से अधिक समय तक विभिन्न स्थानों पर चला तथा जुलाई 1858 तक पूर्णतया शांत हो गया।

विद्रोह-उपनिवेशवादी नीतियों एवं शोषण का परिणाम
आर्थिक कारण
नयी राजस्व व्यवस्था के तहत भारी करारोपण, बेदखली, भारतीय उत्पादों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण प्रशुल्क नीति, परंपरागत हस्तशिल्प उद्योग का विनाश, आधुनिक औद्योगिक व्यवस्यता को प्रोत्साहन देना, जिसने कृषक, जमींदार एवं शिल्पकारों को दरिद्र बना दिया।राजनीतिक कारण- लार्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियां, ब्रिटिश शासन का विदेशीपन, दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था एवं प्रशासकीय भ्रष्टाचार, मुगल सम्राट से निंदनीय व्यवहार।
प्रशासनिक कारण
अंग्रेजों की शासन पद्धति से भारतीयों का असंतुष्ट होना, परंपरागत भारतीय शासन पद्धति की समाप्ति, उच्च पदों पर केवल अंग्रेजों की नियुक्ति तथा अंग्रेजी को सरकारी भाषा बनाना।
सामाजिक और धार्मिक कारण
अंग्रेजों में प्रजातीय भेदभाव तथा श्रेष्ठता की भावना, ईसाई मिशनरियों को प्रोत्साहन, विभिन्न सामाजिक सुधार कार्यक्रम तथा नये नियमों का निर्माण।
सैनिक कारण
सैनिकों के वेतन एवं भते में आर्थिक असमानता एवं भेदभाव, उनका मनोवैज्ञानिक एवं धार्मिक उत्पीड़न। तात्कालिक कारण- चर्बीयुक्त कारतूसों का प्रयोग।

विद्रोह के केंद्र एवं नेतृत्वकर्ता
दिल्ली
जनरल बख्त खां
कानपुर
नाना साहब
लखनऊ
वेगम हजरत महल
बरेली
खान बहादुर
बिहार
कुंवर सिंह
फैजाबाद
मोलवी अहमदउल्ला
झांसी
रानी लक्ष्मीबाई
इलाहाबाद
लियाकत अली
गोरखपुर
गजाधर सिंह
फर्रूखाबाद
नवाव तफज्जल हुसैन
सुल्तानपुर
शहीद हसन
सम्भलपुर
सुरेंद्र साई
हरियाणा
राव तुलाराम
मथुरा
देवी सिंह
मेरठ
कदम सिंह
सागर
शेख रमाजान
गढ़मंडला
शंकरशाह एवं राजा ठाकुर प्रसाद
रायपुर
नारायण सिंह
मंदसौर
शाहजादा हुमायूं (फिरोजशाह)
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विद्रोह को दबाने वाले अंग्रेज जनरल
दिल्ली
लेफ्टिनेंट विलोबी, जॉन निकोलसन, लेफि. हडसन।कानपुर - सर ह्यू व्हीलर, कोलिन कैम्पबेल
लखनऊ
हेनरी लारेंस, ब्रेगेडियर इंग्लिश, हेनरी हैवलॉक, जेम्स आउट्रम, सर कोलिन कैम्पबेल
झांसी
सर हृयू रोज
बनारस
कर्नल जेम्स नील


1857 के विद्रोह की असफलता के कारण, प्रकृति स्वभाव
असफलता के कारण
सीमित क्षेत्र एवं सीमित जनाधार।अंग्रेजों की तुलना में विद्रोहियों के अत्यल्प संसाधन।
योग्य नेतृत्व एवं सामंजस्य का अभाव।
एकीकृत विचारधारा एवं राजनीतिक चेतना की कमी।
प्रकृति
1857
का विप्लव यद्यपि सफल नहीं हो सका। किंतु उसने लोगों में राष्ट्रीयता की भावना के बीज बोये एवं इस क्रांति के दूरगामी परिणाम हुये।

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